जसवंत दे बून्दी के राव हाडा की पुत्री थी। हाडा वंश की यह राजकुमारी अत्यंत वीर और साहसी थी। जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह (प्रथम) के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ। महाराजा जसवंत सिंह बड़े वीर और पराक्रमी थे। मुग़ल दरबार में उन्हें महत्वपूर्ण मनसब मिला हुआ था। शाहजहाँ के उत्तराधिकारी के युद्ध में, जो दारा व औरंगज़ेब के मध्य लड़ा गया, उसमें महाराजा जसवंत सिंह ने दारा का समर्थन किया। औरंगज़ेब और मुराद सम्मिलित रूप से मिलकर दारा का विरोध कर रहे थे और औरंगज़ेब खुद बादशाह बनना चाहता था इसलिए धरमट का इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हुआ।
धरमट के युद्ध में दारा समर्थित सेना की पराजय होती है और औरंगज़ेब विजयी होता है। जसवंत सिंह के कई वीर सामन्त इस युद्ध में काम आये और स्वयं जसवंत सिंह को भी घायल अवस्था में युद्ध के मैदान से बाहर निकाल कर आसकरण, महेशदास आदि ने सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। औरंगज़ेब दिल्ली का बादशाह बनता है। उसने अपने पिता शाहजहाँ को कैद में डाल दिया और दारा की हत्या करदी। जसवंत सिंह, ऐसी स्थिति में, मारवाड़ अपने वतन जागीर में लौट आये।
रानी जसवंत दे, जो जसवंत सिंह की पत्नी थी, को जब ज्ञात हुआ कि महाराजा युद्ध में विफल होकर लौट आये है तो उस क्षत्रिय नारी का वीरत्व जाग उठा। शेरनी की भांति घुर्राते हुए उन्होने कहा – “महाराजा का रूप धरे ये कोई छलिया है। राजपूत युद्ध में पराजित होकर जीवित नहीं लौट सकता। किलेदार! किले का द्वार बंद करदो और ध्यान रहे, मेरी आज्ञा के बिना यह द्वार खुले नहीं।” रानी की इस वीरोचित भावना का जब महाराजा को पता चला तो उन्हें इस वीर नारी पर गर्व हुआ और अपने प्रधान सामन्त को भेजकर जिन परिस्थितियों में उन्हें लौटना पड़ा, उसकी जानकारी करवायी तब जाकर गढ़ के द्वार खुले। अपने पति द्वारा क्षत्रिय धर्म का पालन नहीं करने पर एक क्षत्राणी के स्वाभिमान को कितनी चोट पहुँचती है, जसवंत दे इसका एक उदाहरण है। उन्होंने अपनी गौरवमयी परम्परा का निर्वाह न करने पर प्राणेश्वर को भी नहीं बख्शा। ऐसी राजपूत नारियों के बल पर ही क्षत्रियों का कुल, गौरव, प्रतिष्ठा और मान – सम्मान अक्षुण रहा।
डा.विक्रमसिंह राठौड़,गुन्दोज
राजस्थानी शोध संस्थान, चोपासनी, जोधपुर
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