विदर्भराज की कन्या लोपामुद्रा का जन्म राजकुल में हुआ था। लोपामुद्रा महर्षि अगस्त्य की सहधर्मिणी बनी। बाल्यकाल से ही जो सुख भोगों में पली और राजकीय वैभव में जिसका अब तक का जीवन व्यतीत हुआ, अपने पति की आज्ञा पाते ही क्षण भर में बहुमूल्य वस्त्रों, आभूषणों और समस्त वैभव प्रदर्शन की वस्तुओं का परित्याग कर दिया। राज महिषी अब तपस्विनी बन चुकी थी। अपने पति के समान ही व्रत एवम नियमों का पालन करती हुई लोपामुद्रा तन-मन से पति की अनुगामिनी बन गई। अपने आचरण और व्यव्हार के कारण लोपामुद्रा की गणना अरुन्धती, सावित्री, अनसूया, सुनीति आदि प्रसिद्ध पतिव्रता नारियों में होती है।
लोपामुद्रा के आचरण के सम्बन्ध में देवताओं के गुरु महर्षि वृहस्पति ने अगस्त्य ऋषि के सम्मुख जो उद्गार प्रकट किये वे प्रत्येक भारतीय नारी के लिए ध्यान देने योग्य है और एक क्षत्रिय नारी की समस्त गरिमा को उजागर करने वाले है —
महर्षि वृहस्पति ने कहा –“हे मुनिवर ! आपकी सहधर्मिणी लोपामुद्रा बड़ी पतिव्रता है। यह कल्याणी शरीर की छाया की भांति सदैव आपका अनुसरण करती है। इसकी चर्चा पूण्य देने वाली है। आपके भोजन कर लेने के उपरान्त अन्न ग्रहण करती है, आपके सोने के पश्चात सोती है और आपके जागने से पहले जग जाती है। आपकी अनुपस्थिति में आभूषणों को छूती तक नहीं है। आपकी आयु बढ़े, इसके लिए यह कभी आपका नाम अपनी जबान पर नहीं लाती। सतीत्व रक्षा के लिये पर-पुरुष का स्मरण तक नहीं करती। आपकी कठोर बात को भी शान्ति से सहन कर लेती है, उसका बुरा नहीं मानती। सदैव आपकी मनोकामना को पूर्ण करने हेतु सेवाभाव से तत्पर रहती है। आपको प्रसन्न करने की हमेशा कोशिश करती है। यह कभी घर के द्वार पर बहुत देर तक खड़ी नहीं होती। दरवाजे पर कभी नहीं बैठा करती और आपकी आज्ञा के बिना किसी को कोई वस्तु नहीं दिया करती ।
“कुतर्क करने वाली, दुराचारिणी, कर्कशा, पति से द्वेष रखने वाली इत्यादि दुर्गुणों से युक्त असंस्कारित स्त्रियों से न कभी बात करती है और न ही इनसे मैत्री स्थापित करती है, अकेली कहीं नहीं जाती है। ओखली, मुसल, झाड़ू, सिल, देहली इत्यादि पर नहीं बैठा करती है। किसी की निंदा नहीं करती, कलह नहीं करती । आपके हर्ष, विषाद की सहभागिनी है तथा आपको ही परमेश्वर का रूप मानकर सदा सेवारत रहती है।”
स्त्री अपने पति की सच्चे मन से सेवा करे, पति की आज्ञा का उल्लंघन न करे यही उसका सबसे बढ़ा व्रत है, परम धर्म है और इससे बढ़कर उसके लिए और कोई देवपूजा नहीं हो सकती। अपने पति की हर स्थिति में सहायक हो, उसका कभी परित्याग न करे चाहे वो कैसा भी हो क्योंकि पति ही उसके लिए देवता, पति ही धर्म, पति ही तीर्थ और सबसे बड़ा व पुण्यदायी व्रत है। जिस तरह छाया शारीर का, चांदनी चन्द्रमा का तथा बिजली मेघ का अनुसरण करती है उसी भांति स्त्री सदा अपने पति का अनुसरण करती रहे, पति के जीवन और मरण में उसकी सहचरी बनी रहे। इस तरह की कई बातें पतिव्रता नारी की विशेषता के रूप में हमारे धर्मशास्त्रों में दर्शायी गई है। भारतीय नारी के जो सदियों से आदर्श रहे है उनकी साक्षात् प्रतिमूर्ति है –लोपामुद्रा। वास्तव में गृहस्थ वही है जिसके घर में पतिव्रता स्त्री है।
आज हमारे देश में प्राय: सभी समाज की नारियों में घर-घर में अपने रूप और लावण्य पर गर्व करने वाली स्त्रियों की संख्या दिनों-दिन बढती जा रही है। आधुनिकता के नाम पर वे जो कुछ स्वीकार कर रही है उसकी उपादेयता से वे संभवत: अनभिज्ञ है। भारतीय संस्कृति में नारी की महत्ता का विशेष स्थान रहा है। उन प्राचीन संस्कारों को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है और उनकी उपयोगिता को समझा जाना चाहिए; केवल प्राचीनता के नाम पर उसका परित्याग करना समझदारी नहीं है। क्षत्रिय समाज में आज भी ऐसी नारियां सभवत: अन्य समाजों से अधिक संख्या में मिलेगी जिनके आचरण में लोपामुद्रा के संस्कारों की छाप स्पष्ट झलकती है। ऐसी लोपामुद्रा अधिक संख्या में नहीं मिलती, भगवान की असीम कृपा से मिला करती है। नारी का यहाँ समुचित सम्मान होता है। राजपूत समाज में आज भी नारी को जो सम्मान दिया जाता है वह अनुकरणीय है। पति भी अपनी पत्नी को आदर सूचक जातीय विशेषण से पुकारते है।
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