रानी अजबदे पंवार – Rani Ajabde Panwar – Great Rajput Women

रानी अजबदे पंवार

अजबदे स्वतन्त्रता प्रेमी, स्वाभिमानी वीरवर महाराणा प्रताप की रानी थी। तत्कालीन अन्य रियासतों के राजा महाराजा मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर आराम की जिन्दगी बिता रहे थे परन्तु प्रताप ने अभी तक मुगल सम्राट् को अपना शीश नहीं झुकाया था । हल्दी घाटी में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करने वाला यह वीर अपने आन मान पर दृढ़ था । मुगलों से निरन्तर आठ वर्ष तक संघर्ष करते रहने के कारण महाराणा प्रताप की सैनिक शक्ति धीरे-धीरे कम होती जा रही थी, ऐसी स्थिति में दुर्ग के भीतर रहकर सशक्त शत्रु का अधिक समय तक डटकर मुकाबला करना संभव नहीं था, अतः राणा प्रताप की वीर पत्नी अजबदे पंवार ने राजमहलों का परित्याग कर जंगल में आश्रय लेने का सुझाव अपने पति को दिया । राणा प्रताप को अपनी पत्नी अजबदे पंवार का यह समयोचित सुझाव अच्छा लगा और अपने परिवार के सदस्यों, प्रमुख सामन्तों व विश्वासपात्र सैनिकों के साथ जंगल में प्रस्थान किया ।

राणा प्रताप अपनी कोमलांगी रानी द्वारा जंगल में प्रश्रय लेने के स्वैच्छिक विचार से एक बार तो हिचकिचाये और सकुचाते हुए अजबदे की ओर देखते हुए मन में यह विचार किया कि यह जंगल के बीहड़ रास्तों पर कैसे चल पायेगी ? कैसे यह वन्य जीवन के कष्टों को झेलेगी ? राणा प्रताप ने अभी अपने विचार वाणी द्वारा अभिव्यक्त भी नहीं किये थे कि अजबदे ने महाराणा की हिचकिचा- हट और संकोच को भांप लिया और कहा–“जंगल की शरण लेने में संकोच कैसा । राजा राम को भी चौदह वर्ष तक वनवास भोगना पड़ा और पांडव भी बारह वर्ष तक जंगल में भटकते रहे । हम ही कोई पहली बार ऐसा थोड़े ही कर रहे हैं, ऐसे कष्ट तो हमारे पूर्वजों ने सहे हैं । ये कष्ट तो सच्चे राजपूत की कसौटी है ।” अपनी जीवन संगिनी के ऐसे विचारों से राणा प्रताप प्रभावित हुए और संकोच छोड़ बन को चल दिये । स्वाधीनता प्रेमी उस महान् वीर का साहस जहां डगमगाने लगता, धैर्य का बांध टूटने लगता, उस समय वीर हृदया अजबदे पंवार ही अपने पति प्रताप को आश्वस्त कर उसमें आत्मबल का संचार करती । इसी कारण प्रतापी प्रताप वर्षों तक कष्ट सहने के बाद भी स्वाधीनता की मशाल को सदा थामे रहे, उसकी ज्योति मंद नहीं होने दी । पच्चीस वर्ष तक शक्तिशाली मुगल सम्राट् से टक्कर लेने वाले राणा प्रताप का मनोबल बढ़ाने में अजबदे की महत्वपूर्ण भूमिका रही और अपने पति के स्वाधीनता के प्रण को पूरा करने के लिए राज वैभव का सुख ही नहीं त्यागा कठिन से कठिन घड़ी में भी हर पल साये की भांति साथ रहकर दुख बांटा। रानी अजबदे पंवार दुख को सदा रहने वाली वस्तु नहीं मानती थी और फिर उससे अधिक तो उसे मर्यादा और धर्म की रक्षा करने में गौरव का अनुभव होता था ।

एक बार जंगल में राजकुमार अमरसिंह के हाथ से घास की बनी रोटी जब बन बिलाव छीन कर भाग जाता है और भूख से दुखी हो वह रोने लगता है तो पिता प्रताप का पत्थर दिल भी हिल जाता है “वर्षों कष्ट सहने के बाद भी मेवाड़ का राजकुमार एक रोटी के टुकड़े का मोहताज हो, ऐसी स्वाधीनता किस काम की ?” जब ऐसे विचार के भावावेग में वह अकबर को संधि बाबत पत्र लिखने को तत्पर होता है तो इसकी खबर पाते ही अजबदे पंवार को बहुत दुख हुआ । पति को वह समझाती है कि “हे प्राणनाथ ! तुर्क की अधीनता में हमको फूल भी शूल लगेंगे । आप हमारे कष्टों से विचलित न हों । आपके हृदय में ऐसा अविचार लाना, आपकी बहुत बड़ी भूल है ।” वह अपने पति को प्राचीन प्रसंगों का स्मरण करवाती हुई उसे अपने प्रण पर दृढ़ रहने को प्रोत्साहित करती है ।

उसका वर्णन कवि के शब्दों में इस प्रकार है-

सीता महारानी कहा कानन तैं लौटि आइ,
सैव्या हरिचन्द्र साथ विपत्ति कहा गिरी ।
निद्रावश नल को बिछोरि कहां भाग गई,
रानी दमयंती कहा भई अध गामिनी ।
धर्म हेत कष्ट सहि जानत तिया न कहा
करि वे सुलह बात ताहि तैं प्रभु मानी ।
समता न पाऊं उन देवियों के साथ तोऊ,
प्राणनाथ ! रावरी कहाऊं अरधांगिनी ।

इस प्रकार अजबदे ने क्षत्रिय अर्द्धांगिनी धर्म का पालन करते हुए कर्त्तव्यच्युत होते पति को सही दिशा बता उसकी कीर्ति को अमर बनाया ।

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